नवरात्रि के सभी दिनों का महत्व संक्षिप्त में । नवरात्रि के आठ दिन

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नवरात्रि एक प्रमुख हिन्दू धार्मिक उत्सव है जो देवी दुर्गा की आराधना और पूजा के लिए मनाया जाता है। यह उत्सव बारहतरहनी और चैत्र नवरात्रि के रूप में दो बार मनाया जाता है, और इसका महत्व धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यधिक होता है।


नवरात्रि के आठ दिन की कथा: महत्व

  1. प्रथम दिन (शैलपुत्री पूजा): नवरात्रि की शुरुआत माता दुर्गा के प्रथम स्वरूप, शैलपुत्री की पूजा से होती है। इसका महत्व मातृत्व और उत्तराधिकार की प्रतीक होता है।
  2. दूसरा दिन (ब्रह्मचारिणी पूजा): दूसरे दिन माता दुर्गा का ब्रह्मचारिणी स्वरूप पूजा जाता है। यह संयम और तपस्या की प्रतीक होता है।
  3. तीसरा दिन (चंद्रघंटा पूजा): तीसरे दिन माता दुर्गा का चंद्रघंटा स्वरूप पूजा जाता है, जिसका महत्व साहस और सुरक्षा का होता है।
  4. चौथा दिन (कूष्माण्डा पूजा): चौथे दिन माता दुर्गा का कूष्माण्डा स्वरूप पूजा जाता है, जिससे बुराइयों का नाश होता है।
  5. पांचवा दिन (स्कंदमाता पूजा): पांचवे दिन माता दुर्गा का स्कंदमाता स्वरूप पूजा जाता है, जो अनुग्रह और आशीर्वाद की प्रतीक होता है।
  6. छठा दिन (कात्यायनी पूजा): छठे दिन माता दुर्गा का कात्यायनी स्वरूप पूजा जाता है, जिसका महत्व प्रेम और समर्पण की प्रतीक होता है।
  7. सातवा दिन (कालरात्रि पूजा): सातवे दिन माता दुर्गा का कालरात्रि स्वरूप पूजा जाता है, जिसका महत्व शक्ति और सर्वरक्षकता की प्रतीक होता है।
  8. आठवां दिन (महागौरी पूजा और सिंदूर आरती): नवरात्रि के आखिरी दिन माता दुर्गा का महागौरी स्वरूप पूजा जाता है और उन्हें सिंदूर आरती की जाती है, जिससे सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

प्रथम दिन की कथा: शैलपुत्री कथा

एक समय की बात है, दुर्गा पूजा के आठ दिनों का आयोजन हो रहा था। इस उपलक्ष्य में एक गांव में एक युवती नामक 'शैलपुत्री' नामक राजकुमारी ने जन्म लिया था। उसके पिता का नाम राजा हेमचंद्र था और माता का नाम रानी मेनावती था।

शैलपुत्री का बचपन बड़ा ही आनंदमय था। वह बचपन से ही वीरभद्र की कथाओं से प्रेरित रहती थी और अपने भविष्य को धारण करने का संकल्प बनाया था। वह आत्मनिर्भर और ध्यानशील थी, और उसने योग और तपस्या के माध्यम से अपने आप को माता दुर्गा के साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर किया।

जब वह युवा हुई, तो उसने अपने माता-पिता से अपनी इच्छा बताई कि वह वनवास जाना चाहती है और भगवान शिव की तपस्या करने का निश्चय किया है। उनके माता-पिता ने उनकी इच्छा को स्वीकार किया और उन्हें आशीर्वाद दिया।

शैलपुत्री ने वन में गहरे ध्यान में लगकर भगवान शिव की तपस्या करनी शुरू की। उन्होंने अनेक वर्षों तक अपनी आहार-विहार को बहुत ही संक्षिप्त बना दिया और अपने मन को शुद्ध किया। वे वास्तव में माता दुर्गा की आराधना में लीन थीं।

एक दिन, उनकी तपस्या और ध्यान से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्हें अपने सामने दर्शन दिए। भगवान शिव ने उनसे आशीर्वाद मांगा और उन्हें ब्रह्मचारिणी देवी की अवतार बनने की वरदान दिया।

इस रूप में, शैलपुत्री ने माता दुर्गा की पूजा का आयोजन किया और उनकी आराधना की। उनके बिना माता दुर्गा की कृपा का स्वागत नहीं हो सकता था। उनकी तपस्या, ध्यान और संकल्प से ही वे शैलपुत्री बनीं, जिन्होंने नवरात्रि की प्रारंभिक पूजा का आयोजन किया और धरती पर मातृता की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रकट किया।


दूसरे दिन की कथा: राजा सुषेण और कन्या कौशल्या की कथा

कल्युग के पूर्वकाल में, कश्यप ऋषि की तपस्या से आव्रित हुए देश मिथिला में राजा सुषेण शासन करते थे। वे बहुत ही धर्मात्मा, बुद्धिमान और भगवान की भक्ति में लीन राजा थे। वे बिना संतान के थे, लेकिन उनकी पत्नी रानी सुषीमा अत्यंत पतिव्रता थीं और भगवान की आराधना में निरंतर व्यस्त रहती थीं।

राजा सुषेण और रानी सुषीमा ने विचार किया कि वे वर्षों से पुत्रकाम्य थे लेकिन उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हो रही थी। उनके दिल में असमंजस था कि वे क्या करें, तब उन्होंने विचार किया कि वे अश्विनी कुमारों की आराधना करें, जिन्होंने उनके सखा के घर वास किया था। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर भगवान अश्विनी कुमारों की पूजा की और उनसे संतान प्राप्ति की प्रार्थना की।

भगवान अश्विनी कुमारों ने राजा सुषेण और रानी सुषीमा की प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनकी रानी सुषीमा गर्भधारण करेंगी और वह बहुत ही महान पुरुष होगा। इस प्रकार, वे देवव्रत के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने अपने माता-पिता की आशीर्वाद प्राप्त किया।

इस प्रकार, दूसरे दिन की कथा में राजा सुषेण और रानी सुषीमा के उत्कृष्ट भक्ति और परम आस्था का वर्णन है, जिनके परिणामस्वरूप उन्हें भगवान की कृपा प्राप्त हुई और उन्हें देवव्रत के रूप में उत्तम पुत्र की प्राप्ति हुई। यह कथा भक्ति और आस्था की महत्वपूर्णता को दर्शाती है।


तीसरे दिन की कथा: चंद्रघंटा कथा

ब्रह्मा देव ने देवी दुर्गा की विशेष आराधना करने का आदेश दिया था ताकि वह दुर्गा माता का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। चंद्रघंटा नामक उनके तीसरे रूप की पूजा करने के लिए श्रद्धालु आकर्षित हो गए।

कई वर्ष पहले, एक दुर्गा भक्त राजा महिषासुर के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था। महिषासुर दुर्गा माता के प्रति घृणा और अहंकार से भरा हुआ था और वह देवताओं को जीतकर स्वर्ग पर राज करने का योजना बना रहा था। देवताएँ अपने शक्तियों के साथ दुर्गा माता की शरण में गई और उनसे मदद मांगी।

चंद्रघंटा देवी ने महिषासुर के खिलाफ युद्ध की शुरुआत की और उन्होंने उसे घातक प्रहार में डाल दिया। उनकी आक्रमण शक्ति ने महिषासुर को हराया और समाप्त किया। चंद्रघंटा की वीरता और साहस ने दुर्गा माता की शक्ति को प्रतिष्ठित किया और दुर्गा माता ने महिषासुर को मारकर उनकी उन्नति की दिशा में योगदान किया।

चंद्रघंटा देवी की पूजा से हमें यह सिख मिलती है कि आत्म-नियंत्रण, साहस, और सुरक्षा की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना महत्वपूर्ण है। उनके दिव्य स्वरूप की आराधना करके हम अपने जीवन में साहस और उत्साह की भावना को प्रोत्साहित कर सकते हैं।

इस प्रकार, तीसरे दिन के चंद्रघंटा देवी का पूजन करने से हमें भय और असुरी शक्तियों से मुक्ति मिलती है और हम धैर्य और सहनशीलता के साथ जीवन की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।

तीसरे दिन को नवरात्रि महोत्सव के तीन दिनों के बाद मनाया जाता है और इसे "तीस्रा दिन" या "तृतीया दशमी" के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन माता दुर्गा का "चंद्रघंटा" रूप पूजा जाता है, जिसका महत्व वीरता, साहस और सुरक्षा की प्रतीक माना जाता है।


चौथे दिन की कथा: कूष्माण्डा कथा

कृतयुग में दैत्य राज महिषासुर नामक अत्यन्त प्राकृतिक शक्ति वाला दानव जीवित था। उसने ब्रह्मा की आशीर्वाद से अपने शक्तियों का अत्यधिक अहंकार कर लिया और वर चाहकर उन्हें प्राप्त किया कि कोई भी पुरुष उसे मार नहीं सकता था।

महिषासुर की अशक्तियों और अहंकार की वजह से देवताओं का भय बढ़ गया और उन्होंने अपने समस्त शक्तियों के साथ विष्णु जी के पास जाकर उनसे सहायता मांगी। देवताओं की विनती पर विष्णु जी ने उन्हें बताया कि महिषासुर को मारने का उपाय केवल मां दुर्गा की आराधना और उनकी कृपा से ही संभव है।

तब देवताएँ अपने अस्त्र-शस्त्र सहित भगवती दुर्गा के पास गईं और उनकी कृपा के लिए प्रार्थना की। मां दुर्गा ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और कूष्माण्डा स्वरूप में उन्होंने महिषासुर का विनाश किया।

चौथे दिन की पूजा में भक्तों द्वारा मां कूष्माण्डा की आराधना की जाती है और उनके शक्तियों की प्राप्ति होती है। यह दिन बुराइयों के नाश के लिए उपयुक्त माना जाता है और भक्तों को उनके उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संकल्प लेने का अवसर मिलता है।

इस प्रकार, मां कूष्माण्डा की कथा नवरात्रि के चौथे दिन के महत्व को प्रकट करती है और भक्तों को सफलता, शक्ति और समृद्धि की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है।


पांचवे दिन की कथा: स्कंदमाता कथा

पुरातन काल में, प्रकट हुए दुर्गा देवी के रूपों की पूजा का महत्वपूर्ण भाग है पांचवा दिन, जिसे "स्कंदमाता" के नाम से जाना जाता है। यह दिन नवरात्रि के छठे दिन का हिस्सा होता है और माता की कथा के माध्यम से देवी की महत्वपूर्ण पहचान और संक्षिप्त कहानियों को साझा करता है।

दिन की शुरुआत में, जब देवताओं के बीच रक्षास तरकासुर ने अत्यंत अत्याचारी तत्व की ताक में पूरी ब्रह्मांड में अपाय और विनाश की स्थिति बना दी थी, तब देवी दुर्गा ने आविर्भाव किया। उन्होंने अपने अद्वितीय स्वरूप में उत्पन्न होकर स्कंदमाता के रूप में प्रकट हुईं।

जब देवी दुर्गा ने अपने दिव्य रूप को प्रकट किया, तो उन्होंने अपने एक हाथ में छेदी (चांदी की छड़ी) और दूसरे हाथ में अपने पुत्र स्कंद को गोद में उठाए हुए प्रतिष्ठित किया। उनका यह रूप उनकी मां की भूमिका का प्रतीक होता है, जो स्वयं को अपने बच्चों की रक्षा करने वाली मां के रूप में प्रकट करती हैं।

स्कंदमाता की आराधना करने से भक्तों को समर्पण और निष्ठा की भावना प्राप्त होती है, जो उन्हें समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान निकालने में मदद करती है। उनकी कृपा से भक्तों को आध्यात्मिक उन्नति मिलती है और वे सफलता की ऊंचाइयों तक पहुँच पाते हैं।

इस पांचवे दिन पर देवी स्कंदमाता की पूजा करके भक्त उनकी कृपा प्राप्त करते हैं और उनके आशीर्वाद से जीवन में सफलता और खुशियाँ प्राप्त करते हैं।


छठे दिन की कथा: कात्यायनी कथा

देवी दुर्गा के छठे स्वरूप को 'कात्यायनी' कहते हैं, जो भगवान विष्णु के आवतार कात्यायन ऋषि की प्रार्थनाओं का परिणाम है। कात्यायनी देवी की कथा हमें उनके शक्तिशाली रूप की ओर प्रकट करती है और हमें धैर्य और समर्पण की महत्वपूर्ण शिक्षा देती है।

कात्यायनी कथा का आरंभ कुशबल वन में होता है, जहां कात्यायनी ऋषि का आश्रम था। ऋषि कात्यायन बड़े भक्त और तपस्वी ऋषि थे और वे देवी पार्वती की आराधना करते थे। एक दिन ऋषि कात्यायन ने देवी पार्वती से पूछा कि वह उनकी कैसी आराधना करें, ताकि वे उनकी कृपा प्राप्त कर सकें।

पार्वती माता ने उन्हें उपाय बताया, उन्होंने कहा कि उन्हें नवरात्रि के दौरान आठ दिन तक अकेले फल और शुद्ध खाने की आराधना करनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप ऋषि को एक दिन आपनी कुलदेवी की दर्शन होंगे और वह उनसे विवाह करेंगे।

ऋषि कात्यायन ने यह उपाय अनुष्ठान किया और वाकई, आठवें दिन उन्हें देवी कात्यायनी के दर्शन हुए। देवी ने उनसे पूछा कि उनकी कामना क्या है, और ऋषि ने उनसे विवाह की प्रार्थना की। देवी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उनके साथ विवाह की साक्षात्कार किया।

कात्यायनी देवी की कथा हमें धैर्य, तपस्या, और समर्पण की महत्वपूर्ण शिक्षाएँ देती है। इसके साथ ही हमें दिव्य शक्तियों की महत्वपूर्णता और मातृत्व की महत्वपूर्णता का भी आदर्श प्रस्तुत करती है।


सातवे दिन की कथा: कालरात्रि कथा

देवी दुर्गा के नवरात्रि के सातवे दिन को "कालरात्रि" के नाम से जाना जाता है। यह दिन शक्ति की उत्तमतम रूपा देवी कालरात्रि की पूजा और आराधना के लिए समर्पित है।

एक पुराने समय की बात है, जब दुनिया में राक्षस राजा हिरण्यकश्यप नामक एक दुर्बलता के चलते अत्यंत अत्याचारी थे। वे अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके देवताओं, महर्षियों और भक्तों को परेशान करते थे।

एक दिन राजा हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की मदद से भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद को मारने की कोशिश की। होलिका ने एक विशेष अग्नि कुण्ड में बैठकर प्रह्लाद को गोद लिया, क्योंकि उसकी आग असरदार थी, और वह सोच रही थी कि वह इस तरीके से उसे मार सकेगी। परंतु भगवान की दिव्य रक्षा के कारण प्रह्लाद अस्पष्ट हो गए और होलिका खुद ही जलकर दम तोड़ दी गई।

इसके बाद राजा हिरण्यकश्यप ने अपने दुर्बल दिमाग में यह सोचा कि कौन-कौन से देवता उसे मार सकते हैं। उन्होंने अपने मातृभक्ति के आधार पर ब्रह्मा को वर प्राप्त किया, जिससे उन्हें दिन में न ही मरने का भय था और न रात्रि में।

जब यह सब हो गया, तो राजा हिरण्यकश्यप की उच्चासन पर अधिकार स्थापित हो गया और उन्होंने महान तानाशाही की। उनकी शक्तियों का विकास हो रहा था, और वे देवताओं को भी अपने अधीन करना चाहते थे।

देवताओं के दुखी होने के कारण भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ने एकत्र होकर ब्रह्मणी दुर्गा की उपासना की और उन्हें अपने आग्रह में राजा हिरण्यकश्यप का वध करने का कार्य सौंपा।

भगवान शिव की पत्नी, मां पार्वती, ने अपनी दैनिक शक्तियों का त्याग करके मां दुर्गा का रूप धारण किया, और वे बहुत ही भयंकर और उग्र स्वरूप में परिवर्तित हो गईं।

यह कथा कालरात्रि की महिमा और उनके उग्र रूप की बखुबी दिखाती है, जिनसे वे दुर्गा ने राजा हिरण्यकश्यप का वध किया और धरती पर धर्म की विजय स्थापित की।

कालरात्रि की आराधना में भक्त उनकी उग्रता और सुरक्षा की कामना करते हैं, जिससे उनकी रक्षा में उनके जीवन की सभी बुराइयाँ दूर हों। उनके प्रतिवादी स्वरूप से सभी बुरे शक्तियों का नाश होता है और धरती पर शांति और सुख की स्थापना होती है।


आठवें दिन की कथा: महागौरी कथा

कई साल पहले की बात है, एक समय की बात है, जब पृथ्वी पर दुर्गा माता ने अपने आशीर्वादों के लिए यह संसार सृजित किया था। माता पार्वती ने तप के माध्यम से महागौरी स्वरूप में रूप धारण किया था। उनका यह रूप उनकी साधना और त्याग की प्रतीक होता है।

महागौरी माता की कथा एक दिन की है, जब वह अपने दिव्य स्वरूप में काशी में आईं। उनके आगमन की खबर बड़ी तेजी से फैल गई और लोग उनकी आराधना के लिए उत्सुक हो गए।

एक गांव में एक युवक नामकरण समारोह के दिन गांव से बाहर जाने गए थे। उन्होंने अपने माता-पिता से भी अनुमति ली थी कि वह कुछ दिन के लिए वापस नहीं आएंगे।

समारोह के दौरान, युवक ने अपने दोस्तों के साथ बहुत मजा किया और रात में नाच-गाने का आयोजन किया। उन्होंने अपने वादे के बारे में सोचकर नहीं सोचा क्योंकि माता महागौरी की कथा उन्होंने सुनी ही थी, परंतु उनके दिल में उसकी महत्वपूर्णता का परिचय नहीं था।

नींद में भी वे अपनी मस्ती में बिताए हुए दिनों को याद करते रहे और सुबह होते ही उन्होंने बाहर जाने का निश्चय किया। उन्होंने समारोह समाप्त किया और वापसी की यात्रा शुरू की।

जब वे वापस गांव पहुँचे, तो उन्हें अचानक एक बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ा। गांव में एक विद्या केंद्र की छत गिर गई थी और कई लोगों को चोटें आई थीं। युवक ने देखा कि लोग अपने परिजनों को एकत्र करके दुखी हो रहे हैं।

उन्होंने महसूस किया कि उनकी मस्ती और लापरवाही के चलते वह दिव्य शक्तियों के साथ समाज में सहायता नहीं कर पाएंगे। वे अपने अद्वितीय अनुभव के बारे में लोगों से शेयर करते हैं और उन्हें माता महागौरी की कथा का महत्व समझाते हैं।

वे बताते हैं कि महागौरी माता की कथा से हमें यह सिख मिलती है कि संसार में हमें अपने कर्तव्यों की पर्याप्त समझ और उनका पालन करना चाहिए। वे यह भी सिखाते हैं कि आत्म-नियंत्रण और त्याग ही विजय की कुंजी होती हैं।

इसके बाद, उन्होंने गांव में जोड़-जोड़ कर सभी की सहायता की और साथ मिलकर विद्या केंद्र की मरम्मत की। उन्होंने दिखाया कि नवरात्रि के अवसर पर न केवल आराधना बल्कि उपयोगी क्रियाएं भी करनी चाहिए, जो समाज में सद्गुण पैदा करती हैं।

इस प्रकार, युवक ने माता महागौरी की कथा से उनके अनुभव को सबके साथ साझा करके समाज में सहायता की और दिव्य शक्तियों का सही रूप में उपयोग करने का संकल्प लिया।

इस कथा से हमें यह सिख मिलती है कि महागौरी माता की पूजा करने से हमें सामाजिक सहायता, समर्पण, और सेवा की भावना उत्तरित होती है। उनकी कथा से हमें यह संदेश मिलता है कि हमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते समय नैतिकता और उच्चता की दिशा में चलना चाहिए।


इन नौ दिनों के दौरान, भक्त देवी दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा और आराधना करके उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। नवरात्रि के इन दिनों में धर्मिक और सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, जिनमें गीत-नृत्य, पूजा-अर्चना, और सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ शामिल होती हैं।